जाति-व्यवस्था एवं छुआछूत:-डॉ. अंबेडकर का दृष्टिकोण

 जाति-व्यवस्था एवं छुआछूत:-डॉ. अंबेडकर का दृष्टिकोण

अशोक कुमार पाण्डेय कुछ विचारकों ने पुरुष- सूक्त को ऋग्वेद का एक अद्वितीय अंग कहा है। इन विद्वानों के सम्मति में इन सूक्त की अद्वितीयता का कारण इस में पाई जाने वाली सामाजिक व्यवस्था है, जिसको ‘ चातुर्वर्ण्य ‘ के नाम से पुकारते हैं। पुरुष – सूक्त में यह बताया गया है कि वर्णव्यवस्था सृष्टि के आदि से है और इसके अंतर्गत चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। इस वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति दैविक बताई गई है। ब्रह्मा ने इनकी सृष्टि की और इन चारों वर्णों को गुण कर्म के अनुसार कर्तव्य प्रदान भी किये, हिंदू विद्वानों का ऐसा कथन है।

        डॉ. अंबेडकर इस कथन से सहमत नहीं है। उनके अनुसार, प्रारंभ में केवल तीन ही वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य थे। केवल पुरुष सूक्त में ही चार वर्णों की बात कही गई है कि ब्रह्मा ने संसार की समृद्धि के लिए इन वर्णों का सृजन किया। परंतु डॉ. अंबेडकर का कहना था कि ऋग्वेद के अंतर्गत पुरुष सूक्त को बहुत समय बाद संलग्न किया गया। पुरुष सूक्त एक क्षेपक है। ऐसा बहुत से पूर्व एवं पश्चिम के विद्वान मानते हैं, जिनमें प्रो. कौलब्रुक, प्रो. मैक्समूलर, प्रो. वेबर आदि के नाम मुख्य हैं। यहां तक कि सत् पथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी केवल तीन वर्णों का उल्लेख है।

              डॉ. अंबेडकर मानते थी कि “आदर्श नियमों के रूप में होने चाहिए क्योंकि उनसे समाज का कल्याण होता है। बिना नियमों के व्यक्ति एवं समाज ठीक तरह से जीवनयापन नहीं कर सकते। लेकिन समय एवं परिस्थितियों के अनुसार उन नियमों में परिवर्तन होना आवश्यक है।नियमों का मूल्यांकन नवीन परिस्थितियों में होते रहना चाहिए। ऐसा करना तभी संभव है, जबकि उन नियमों को दैविक एवं पवित्र न माना जाए। डॉ. अंबेडकर का यह कथन ठीक प्रतीत होता है कि “पवित्रता का भाव परिवर्तन एवं मूल्यांकन का विरोधी है।”

                             प्राचीन व्यवस्था के प्रति डॉ अंबेडकर के हृदय में असंतोष की भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने जातिवाद को जड़ से समाप्त करने का बीड़ा उठाया।ऐसा आंदोलन प्रारंभ किया, जिसका मूल उद्देश्य स्वतंत्रता एवं समानता की भावना का प्रसार करना तथा मानव अधिकारों को सबके लिए सुलभ बनाना था।

डॉ. अंबेडकर हिंदू समाज में मौलिक सुधार चाहते थे। वह एक ऐसे सामाजिक परिवर्तन के पक्ष में थे, जो जातिवाद, छुआछूत तथा ऊंच-नीच की भावनाओं का नाश कर दें।और समस्त मानव प्राणियों को प्रगति की ओर प्रेरित करें।

            डॉ. अंबेडकर द्वारा प्रतिपादित समाज का आधार प्रजातंत्र होना स्वाभाविक है। क्योंकि वह जातिवाद और वर्ण व्यवस्था को बिल्कुल नहीं चाहते थे।अच्छी समाज व्यवस्था के लिए वह वैधानिक आधार भी चाहते थे, क्योंकि जहां समाज विरोधी तत्व हो, उनको कानून के सहारे समाप्त करना न्यायोचित है। प्रजातंत्रिय  समाज का आधार काल्पनिक न होकर वास्तविक होना चाहिए। यह ठीक है कि प्रजातंत्र में उनके मौलिक भिन्नताएं होती हैं, लेकिन वोट देना, चुनाव करना और वैधानिक रूप मानना ही पर्याप्त नहीं है। वास्तविक रुप से प्रजातंत्र सब की संपत्ति होना चाहिए न की कुछ व्यक्तियों की। सबकी संपत्ति मानकर  प्रजातंत्र की जड़े दृढ़ हो सकती है,अन्यथा प्रजातंत्र अन्याय का साधन बन सकता है। अन्य शब्दों में, प्रजातंत्र एक ऐसी जीवन- विधि है,जो शोषणकारी और अधिनायकवादी तत्वों का विरोध करती हैऔर जिस में वर्ण व्यवस्था या जातिवाद के लिए कोई स्थान नहीं है।

                      स्पष्टत: डॉ अंबेडकर के समाज की जड़ें और सामान्य हित, सर्व कल्याण, स्वतंत्रता एवं समता में निहित है। आदर्श समाज का यह विचार रचनात्मक एवं गतिशील है। मानवीय परिस्थितियों के अनुसार इसमें परिवर्तन भी हो सकते हैं, ताकि समाज में उत्पादित वस्तुओं का लाभ भी लोग उठा सके। सांस्कृतिक एवं भौतिक मूल्यों का सभी आनंद ले सकें। सभी मनुष्य अपनी समस्याओं को समझें, मिलकर उनका निवारण करें और सामाजिक एकता को बनाए रखें। डॉ अंबेडकर का आदर्श समाज निम्नलिखित बातों पर आधारित है –

(1) एक ऐसा समाज,जो निजी सरकार एवं श्रेष्ठ राज्य व्यवस्था के अनुकूल हो ताकि दोनों को सहायता मिल सके।

(2) एक ऐसा समाज, जिसमें सभी व्यक्तियों के जीवित रहने, स्वतंत्रता और सुख प्राप्ति के अधिकार बने रहें और सब लोग स्वतंत्रतापूर्वक धार्मिक जीवन बिता सकें।

(3) एक ऐसा समाज, जिसमें सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक विषमताए न रहे और सबको न्याय उचित अवसर और सुविधा प्राप्त हो।

(4) एक ऐसा समाज, जिसमें कोई व्यक्ति भूखा ना मरे, किसी को भय – पीड़ा ना हो, सुरक्षा के अभाव में बेचैन ना हो और उत्तरदायित्व से भागे नहीं।

(5) एक ऐसा समाज, जहां शांतिमय आंतरिक व्यवस्था बनी रहे और जहां अन्याय, दमन और दबाव न हो।

                       

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